Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ


Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ 

       दिल्ली के सबसे प्रसिद्ध स्मारक क़ुतुब मीनार के साथ, क़ुतुब परिसर के अंदर स्थित, 24 फीट की ऊंचाई के साथ प्रमुख रूप से खड़ा है एक ऐतिहासिक स्मारक, दिल्ली की एक रहस्यमयी और रोचक पहेली - लौह स्तम्भ या Iron Pillar of Delhi.


Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ @delhiblogs
Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ

         जो खुद को रहस्यमयी लोहे से निर्मित होने के कारण, सभी को अपनी और आकर्षित करता है, जिसका निर्माण हुआ था 1600 वर्षों से भी पूर्व और जिस पर राजधानी के तापमान और बढ़ते प्रदुषण के बावजूद आज तक जंग नहीं लगा। आमतौर पर खुले में रखे इतने पुराने लौह स्तम्भ को बहुत पहले धुल के ढेर में बदल जाना चाहिए था। 

       खुली हवा में रखे जाने के बावजूद, लौह स्तम्भ अभी भी मजबूत है, जो प्राचीन भारत में वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग उन्नति का एक उत्कृष्ट उदहारण प्रस्तुत करता है। यह 'दुनिया के सबसे पुराने रहस्यों में से एक' बन गया है जिसे पुरातत्वविद और सामग्री वैज्ञानिक अभी भी हल करने की कोशिश कर रहे है। 

       इसी रहस्यमयी पहेली के कारण कुछ लोगों ने लौह स्तम्भ को OOP Art या "out of place artifacts" यानि "अपनी जगह से बाहर की कलाकृतियाँ" के समूह में शामिल किया है। जिन्हे कई वर्षों में सिद्धांतों के कारण, यह माना जाता है की यह वस्तुवें किसी गैर-सांसारिक धातु या भविष्य के धातु से बनी है जो किसी और समय या दूसरे गृह से आए थे। 

       दिल्ली के क़ुतुब परिसर में आने वाली आगंतुक अक्सर आँगन में खड़े लोहे के खम्भे की उत्पति और अर्थ के बारे में सोचकर हैरान रह जाते है। यहाँ यह बताना आवश्यक है की लौह स्तम्भ का मूल रूप से दिल्ली से कोई सम्बन्ध नहीं था। यह स्तम्भ अलंकृत है, पर यह शायद तब तक किसी को इतना विस्मयकारी या रोचक ना लगे, जब तक उन्हें इसके पुराने और रहस्यमयी इतिहास के बारे में पता ना लगे। 


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Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ
       लौह स्तम्भ का निर्माण किस सम्राट ने किया?  मूल रूप से यह कहाँ स्थित था?  इसके निर्माण का क्या उद्देश्य था?  क्या यह केवल एक धार्मिक प्रत्येक था?  यह किस युग का है और इसके वर्तमान स्थान पर किसने स्थानांतरित किया?  आइए कोशिश करते है इन सभी सवालों के जवाब तलाशने की  - 

History of Iron Pillar - लौह स्तम्भ का इतिहास

       लौह स्तम्भ के इतिहास की एक झलक से हम इसके निर्माण के समय और निर्माण के कारणों के बारे में जान सकते है। यद्यपि दिल्ली के लौह स्तम्भ का इतिहास अभी भी अनुसंधान के अधीन है और इसके मूल के कई संस्करण मौजूद है, पर इसके शिलालेख हमें लौह स्तम्भ के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देते है। 

       विद्वानों के अनुसार, स्तम्भ पर शिलालेख की भाषा और शैली से हम यह जान सकते है की Iron Pillar of Delhi का निर्माण लगभग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त राजा चन्द्रगुप्त II (375-413 ईस्वी) की याद में गुप्त शासनकाल (320-495 ईस्वी) के शुरूआती काल में किया गया था। स्तम्भ पर शिलालेख की तीसरी कविता में, विद्वानों ने "चंद्र" नाम का उल्लेख खोजा है, जो गुप्त वंश के शासकों को दर्शाता है। ऐसा माना जाता है की इसे हिन्दू भगवान विष्णु के सम्बन्ध में बनाया गया है। इस पर "ब्राह्मी अक्षरों" के शिलालेख इस नतीजे की ओर संकेत करते है। 


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       इस बारे में कई सिद्धांत है की स्तम्भ कहाँ बनाया गया था, एक प्रमुख सिद्धांत के अनुसार, मूल रूप से यह मध्य प्रदेश में स्थित "उदयगिरि" नामक स्थान में विष्णुपद पहाड़ी के शीर्ष पर एक सूर्यघड़ी के रूप में बनाया गया था। कुछ मान्यताओं के अनुसार, इस स्तम्भ को उदयगिरि में ही एक विष्णु मंदिर के सम्मुख आँगन में स्थापित किया गया था। पर अब यह मध्य प्रदेश में क्यों नहीं है, यह भी एक रहस्य है। 

       इस बात का कोई पुख्ता सबूत नहीं है की 1000 वर्ष पूर्व इस खम्भे को किसने खिसकाया था?  कैसे स्थानांतरित किया गया था? यहाँ तक की इसे स्थानांतरित ही क्यों किया गया था? यह निश्चित नहीं है की इस स्तम्भ को कब उसके मूल स्थान से दिल्ली लाया गया था। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार, लौह स्तम्भ को साल 1050 में तोमर राजा, राजा अनंगपाल II द्वारा नई दिल्ली में उनके द्वारा बसाए गए शहर लाल कोट के मुख्य मंदिर में रखा गया था

      हालाँकि, साल 1191 में जब राजा पृथ्वीराज चौहान, जो राजा अनंगपाल II के पोते थे, मुहम्मद गोरी की सेना से हार गए थे तो उसकी सेना के जनरल क़ुतुब-उद-दीन ऐबक द्वारा लाल कोट में क़ुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्जिद का निर्माण कराया गया। तब लौह स्तम्भ को उसके स्थान से मस्जिद के सामने, उसकी आज की वर्तमान स्थिति में खड़ा किया गया। कुछ विद्वानों का मानना है की क़ुतुब-उद-दीन ऐबक द्वारा नहीं बल्कि उनके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश (1210-1236) द्वारा इस स्तम्भ को स्थानांतरित किया गया था।        


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Architecture of Iron pillar of Delhi - वास्तुशिल्प 

       महरौली के लौह स्तम्भ की लम्बाई शीर्ष से इसके आधार तक 7.2 मीटर है और यह जमीन में 1 मीटर नीचे गड़ा हुआ है। यह 48 cm व्यास के साथ एक कलात्मक नक्काशीदार आधार पर खड़ा हुआ है और इसका वजन लगभग 6.5 टन है। खम्भे की छोटी खूबसूरत नक्काशी से सजी है। इसमें एक गहरी गर्तिका (socket) भी है जिसके आधार पर कहा जाता है हिन्दू भगवान् गरुड़ स्थापित थे। लौह स्तम्भ पर कुछ महत्वपूर्ण शिलालेख है जिनकी सहायता से इसकी उत्पत्ति का अनुमान लगाया जा सकता है। 

       हालाँकि, इसका मूल स्थान जहाँ यह बनाया गया था, अभी भी अनुसन्धान के अधीन है। जंग (rust) के प्रति स्तम्भ के उच्च प्रतिरोध के कारण इसने पुरातत्वविदों और सामग्री वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है और इसे हम प्राचीन भारतीय लोहे के कारीगरों के उच्च स्तर के कौशल का प्रमाण मान सकते है। 


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       Iron Pillar of Delhi की वास्तुकला का सबसे आकर्षक हिस्सा है इसका 1600 वर्षों से अधिक तक खुली हवा में रहने के बावजूद जंग नहीं लगना है। इसके पीछे का कारण खोजने के लिए कई शोध किये गए है। कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार वो सामग्रियां जिनका इसके निर्माण में उपयोग किया गया था, इसके संक्षारण के प्रतिरोध का मुख्य कारण है। साल 1961 में, यह पता चला के निर्माण में प्रयुक्त लोहा बहुत कम कार्बन सामग्री के साथ असाधारण शुद्ध गुणवत्ता का है और इसमें सल्फर और मैग्निसियम की मात्रा नहीं के सामान है।

       98 प्रतिशत शुद्ध गढ़ा लोहे से निर्मित यह स्तम्भ, कोयले की गरम भट्टी का उपयोग करके बनाया गया होगा, ताकि फोर्ज वेल्डिंग (forge-welding) को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त गर्मी पैदा की जा सके, जहाँ धातु के दो या अधिक टुकड़ों को एक साथ हथोड़े द्वारा मार कर जोड़ा जा सके। स्तम्भ की सतह पर हथोड़े के निशान अभी भी देखे जा सकते है। 

Inscriptions on Iron Pillar - शिलालेख 

       ब्राहमी लिपि में लिखे शिलालेख का कई बार अनुवाद किया गया है। यह 6 पंक्ति और 3 छंद का शिलालेख संस्कृत में है। John faithful fleet द्वारा साल 1888 में किये अनुवाद को सबसे अधिक बार प्रकाशित किया गया है, जिसमे लिखा गया है - "वह जिसकी बांह पर तलवार से उसकी ख्याति अंकित की गई थी, जब वांगा देशो की लड़ाई में, वह अपने दुश्मनों को मारता था, जो एकजुट होकर उसके खिलाफ आए थे, वह जिसके शौर्य की हवा से दक्षिणी महासागर अभी भी सुगन्धित है।"


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       छंद का समापन इस पंक्ति से किया गया - "वह, जिसका नाम चंद्र है, जिसकी मुखाकृति की सुंदरता पूर्णिमा के चंद्र जैसी है, जिसने अपने विश्वास को भगवान् विष्णु पर निर्धारित किया, और जिसने भगवान् विष्णु की भक्ति में इस लौह स्तम्भ को 'विष्णुपद' नामक पहाड़ी पर स्थापित किया।" लेकिन वास्तव में राजा चंद्र कौन था, यह एक पहेली है। 

       स्तम्भ उस शक्तिशाली शौर्यवान सम्राट की बात करता है जिसके पास यह स्तम्भ था, लेकिन नाम अभी भी अज्ञात है। व्यापक रूप से माना जाता है की यह शिलालेख राजा चन्द्रगुप्त II को संदर्भित करता है, जिन्होंने लगभग साल 375 से 415 तक शासन किया था। हालाँकि, कुछ के अनुसार, यह शब्द उनके पिता राजा समुद्रगुप्त (340-375) को संदर्भित करते है।

जंग ना लगने के कारण

       यह इतने लम्बे समय तक कैसे अप्रवाभित रहा और इस पर जंग क्यों नहीं लगता? हालाँकि, अब हम यह जानते है की यह पूरी तरह सही नहीं है। निश्चित रूप से यह अपनी उम्र के लिए एक अविश्वसनीय स्थिति में है, पर इस स्तम्भ पर जंग की थोड़ी मात्रा अब दिखाई देने लगी है। पर फिर भी यह इस स्तम्भ को कम रहस्यमय नहीं बनता है। जैसे की हमने पहले कहा की इसे आज वर्तमान में मौजूद ही नहीं होना चाहिए था, पर कैसे इसने इतने वर्षों का सामना किया? इस सवाल का जवाब इतना आसान नहीं है। 


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       IIT कानपुर के धातुविदों ने पता लगाया है की लोहे, आक्सीजन और हाइड्रोजन से अनजाने में या किस्मत से या जानबूझ कर बनाई गई एक पतली परत "मिसवाइट" ने इस स्तम्भ की जंग से रक्षा की है। स्तम्भ के निर्माण के 3 साल के भीतर इस सुरक्षात्मक परत का बनना शुरू हुआ और तब से अब तक धीरे-धीरे यह बढ़ रही है। यह भी पाया गया है की स्तम्भ में सल्फर या मैग्नीशियम नहीं है, लेकिन इसमें फॉस्फोरस की उच्च मात्रा है। 

       स्तम्भ को बनाते समय इस्तेमाल की जाने वाली भट्टियों में चुने की कमी, कच्चे लावे और शुद्ध लोहे की उपस्थिति के कारण और मौसम के गिला एवं सूखा होने के चक्र के कारण शायद अनजाने या दुर्घटनावश इस "मिसवाइट" परत का निर्माण हुआ। जिसकी मोटाई केवल 1/20 मिलीमीटर है। प्राचीन भारतीय धातुकर्मवादियों और श्रमिकों के अग्रिम कौशल को भी मुख्य कारणों में से एक कहा जा सकता है, जिन्होंने को एक ही कदम में चारकोल के साथ मिलकर लौह अयस्क को स्टील में कम कर दिया या बदल दिया। 


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Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ
       
       अतीत में ऐसे भी सुझाव दिए गए है की, स्तम्भ का गाय के दूध से बने शुद्ध मक्खन और घी से अभिषेक किया गया था। इस पर अलसी के तेल की एक पतली परत चढाई गई थी जो कुछ महीनों के लिए स्टील को अच्छी सुरक्षा देने के लिए विख्यात है और इसके नियमित इस्तेमाल से स्तम्भ को धूल, रेत और जंग से बचाया गया होगा। हालाँकि, 12वीं शताब्दी में मुस्लिम कब्जे के दौरान इस औपचारिक अभिषेक के अभ्यास को बंद कर दिया होगा, फिर कैसे इस पर जंग नहीं लगा?

एक चमत्कारी आश्चर्य

       तो हमने Iron Pillar of Delhi पर जंग ना लगने के कई कारणों और संभावित उत्तरों को जाना। पर बिलकुल किस तरीके से इसे बनाया गया, यह अभी भी एक रहस्य है, जो वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को उजागर करने के लिए एक बड़ी चुनौती है। यह संभव है की यह जानकारी अभी भी बाहर खोज की प्रतीक्षा में है, जिससे हम भारत के समृद्ध इसिहास और चमत्कारों के बारे में जान पाएंगे। शायद खुद स्तम्भ के विश्लेषण और भारत के समृद्ध इतिहास से हम इस रहस्य को सुलझा पाएं। 


Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ

दिल्ली - लौह स्तम्भ के लिए आदर्श स्थान 

       जंग के लिए मुख्य कारण आद्रता (humidity) है, और दिल्ली बहुत अधिक आद्र नहीं है। दिल्ली की जलवायु, आद्रता की कम मात्रा, जो अधिकांश समय 70% से अधिक नहीं होती के साथ शुष्क है। जो दिल्ली में 4 मौसमों के अनुभव के बावजूद लौह स्तम्भ को जंग से बचाते है। दिल्ली में जब बारिश होती है, तब हवा बहुत शुष्क होती है। रात में जब तापमान धीरे-धीरे गिरता है तो स्तम्भ की उच्च गर्मी क्षमता के कारण यह गर्म रहता है और हवा की आद्रता उतना नुकसान नहीं पहुंचा पाती जिससे जंग लग सके।  

तोप के गोले के सबूत

       आमतौर पर चिकनी सतह जैसा दिखने वाले लौह स्तम्भ पर, जमीनी स्तर से लगभग 400 cm ऊपर एक प्रमुख निशान है। यह कहा जाता है यह विनाश, निकट सीमा से किये गए तोप के गोले की गोलीबारी की वजह से हुआ है। इसका कोई समकालीन रिकॉर्ड, शिलालेख या घटना का वर्णन करने वाले दस्तावेज़ मौजूद नहीं है, पर इतिहासकार इस बात पर सहमत है की साल 1739 में दिल्ली पर अपने आक्रमण के दौरान नादिर शाह ने स्तम्भ के विनाश का आदेश किया था। 


Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ @ delhiblogs
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       नादिर शाह को एक इस्लामी मस्जिद परिसर में स्थित हिन्दू स्मारक अवांछनीय था और इसीलिए उन्होंने इसे नष्ट करने की कोशिश की। वैकल्पिक रूप से, स्तम्भ में छुपे हुए कीमती पत्थरों और अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं की प्राप्ति के लिए उन्होंने सजावटी शीर्ष हिस्से को हटाने की कोशिश की होगी। 

       दिल्ली के लौह स्तंभ पर केवल एक निशान के अलावा कोई अतिरिक्त क्षति नहीं हुई है, जो इसका सबूत है की इस पर ओर ज्यादा हमले नहीं किये गए। इतिहासकारों ने अनुमान लगाया है कि शायद तोप के गोले के टुकड़ों से पास में स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में नुकसान हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप स्तम्भ पर हमले बंद कर दिए गए। 

लोकप्रिय प्रथा या मान्यता

       एक लोकप्रिय प्रथा हुआ करती थी, जहाँ आगंतुक स्तम्भ के साथ पीठ के सहारे खड़े होकर अपने दोनों हाथों को मिलाने की कोशिश करते थे। ऐसा माना जाता था की यदि वे अपने दोनों हाथों को मिला लेंगे तो उनकी किस्मत अच्छी हो जाएगी और उनकी उम्र बढ़ जाएगी। परिसर के पर्यटक गाइड आपको यह भी बताएँगे की यदि हम ऐसा करेंगे तो आप अपने प्रेमियों को पा सकेंगे और आपका रिश्ता बहुत हार्दिक होगा। 


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       हालाँकि, इस लोकप्रिय अभ्यास के कारण लौह स्तम्भ के निचले हिस्से में थोड़ी मात्रा में मलिन करण हो गया था। इसीलिए स्तम्भ को और अधिक नुकसान से बचाने के लिए इसके चारों तरफ साल 1997 में एक बाड़ का निर्माण किया गया था। 

कैसे पहुंचे

       महरौली के क़ुतुब परिसर में स्थित दिल्ली का लौह स्तंभ सप्ताह के सभी दिनों में खुला रहता है। आने का समय सुबह 7:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक है। क़ुतुब परिसर का सबसे नजदीकी दिल्ली मेट्रो स्टेशन - क़ुतुब मीनार है, जहाँ से आप ऑटो या रिक्शा की मदद से 5-10 मिनट में पहुँच सकते है। 


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Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभ
       "Iron Pillar of Delhi - दिल्ली का लौह स्तंभएक उत्कृष्ट कृति है, जो एक पुरातात्विक चमत्कार है, जो अतीत-वर्तमान, इसिहास-विज्ञान और कल्पना एवं शहरी किंवदंतियों का गलनांक (melting point) भी है। यह प्राचीन भारत के धातुकर्मवादियों के कौशल का जीवंत प्रमाण है। 

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